बरसात हूँ मैं, बरसूँगी ही
सदियो से बरस रही हूँ, समय पर
जब-जब ताप बढ़ा है- धरा पर
तिलमिलाता हुआ जीवन हुआ गर्मी से
जब-जब भानु लाल हुआ- गगन पर
मैं खुद से ही पृथक हो गयी
बूँद-बूँद कर तरल हो गयी
अपनाकर धरा को गले लगाकर
उसका ताप निगल मैं भस्म हो गयी
पर अहं नहीं
उसने भी तो अपनी बाहों में कभी संभाला मुझे
तो उसकी रक्षा तो करूँगी ही
बरसात हूँ मैं, बरसूँगी ही
#mhicha

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