Saturday 29 August 2015

आरक्षण की आत्मकथा, एक कल्पना, एक सोच



 आरक्षण की आत्मकथा, एक कल्पना, एक सोच
मैं आरक्षण हूँ|भारत देश में मेरा जन्म हुआ, यहीं पला-बड़ा और यहीं मेरा अंत भी सुनिश्चित है| जैसे हर कोई इस संसार में जन्म लेता है, किसी एक खास मकसद के लिए, शायद मेरा भी कोई मकसद रहा होगा| जिसने मुझे इस समाज में जन्म दिया, वह इंसान काफी नेक दिल था पर ये समाज हर तरह के प्राणियों से भरा पड़ा है; इनके बीच अपने कार्यसिद्धि को प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है | मुझे जहाँ तक याद है- मेरा जन्म हुआ उन लोगो को समाज के अन्य वर्गो की तरह अग्रसर करने के लिए जो जातिवाद नामक राक्षस के आतंक में कहीं पीछे छूट गए, जो अपने जीवन यापन को बोझ समझने लगे, जातिवाद ने जिनके आत्मविश्वास को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया; मैं बनाया गया उन लोगो की स्तिथि सुधरने के लिए जो कुछ अहंकारी और अंधविस्वाशी लोगो के पाखंडों के चलते अपने जीवन को शापित सहमझने लगे|

मैंने पूरी तरह से कोशिश की कि में अपने जीवन को सार्थक कर पाऊँ, उन लोगो की पूरी तरह से मदद करके और काफी हद तक मैंने किया भी| जो मेरे संरक्षक थे, वो अब नहीं रहे; पर आज कुछ लोभी लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मेरा संरक्षक बने घूमते हैं और वो इंसान भी तो अब वैसे नहीं रहे जिनके लिए मुझे बनाया गया था| मेरे बनाना वाले का दिल बहुत बड़ा था| उसने चाहा था कि सभी को समान रूप से हक़ मिले और जिन्हे नहीं मिल पाता, मैं उन्हें उनका हक़ दिलाने में मदद करू| इस कार्य के लिए मुझे शासन और प्रशाशन दोनों से ही अधिकार प्राप्त हुए और उन अधिकारों का मैंने अच्छी तरह से उपयोग किया|

पर आज जब समाज में मैंने लोगो को मेरे लिए झगड़ते देखा तो बहुत ही ग्लानि हुई| आज जो लोग मेरे द्वारा सक्षम बनाये गए, वो भी उन्ही लोगो में शामिल हो गए हैं जो दूसरे पिछड़े लोगो को आगे नहीं बढ़ने दे रहे| तुम सोच रहे होंगे कि मुझे आज अपनी आत्मकथा लिखने की जरुरत क्यों महसूस हुई| वो इसलिए क्यूंकि समय बदल रहा है और समय के साथ-साथ समाज भी| प्राचीन समय में जो लोग समृद्ध थे, वो आज नहीं रहे और कुछ लोग जो समाज के सताए हुए थे उनमे से काफी लोगो को में समृद्ध बना चुका हूँ अपना कर्म करते-करते मेरी उम्र हो गयी है |अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ| मेरे कंधो में अब वो जान न रही कि पूरे समाज का बोझ अपने सर पे रखकर चलूँ| मेरे बच्चों मुझे अब आराम की जरुरत है| तुम्हारी जरूरतें पूरी करते-करते न जाने मैंने कितनो का हक़ छीना है, न जाने कितनो की आशाओ पे पानी फेरा है और न जाने अनजाने में कितने स्वार्थी और लोभी लोगों का घर भरा है| इन सबके लिए शायद परमेश्वर मुझे कभी माफ़ नहीं करे और मुझे इस चीज का अफ़सोस भी नहीं है क्यूंकि मैंने जो कुछ भी किया अपने रोते-बिलखते बच्चों के लिए किया| आज समय आ गया है जब इस बूढ़े को चैन से मरने दिया जाए| मैं अब और कुछ नहीं कर सकता| मेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है और शरीर पे कुछ कोड भी निकल आया है| ये मेरे पापो का फल है शायद या उन तमाम लोगो की बद्दुआ जिनके हाथ से निवाला छीनकर मैंने तुम्हे दिया| अब वक़्त आ गया है कि तुम अब अपने पैरों पे खड़े हो जाओ और अपना और दुसरो का हित जानकर कर्म करो और इस संसार में आने का अपना उद्देश्य सिद्ध करो|

मैं तुम्हे अपनी जवानी के दिनों की एक बात बताना चाहता हूँ, जिसे मैंने तुमसे आजतक छिपाए रखा| मुझे मेरे जीवन में एक लड़की से प्यार हुआ तब में छोटा था और वो कौमार्यावस्था को पार कर चुकी थी | शायद तुम्हे हैरानी हो रही होगी और तुम्हे ये बात समझ भी न आये, पर सच तो ये है कि प्यार किसी से भी हो सकता है| आज तक तुमने हीर-राँझा, लैला-मजनू की कहानी पड़ी होगी; आज एक कहानी मेरी भी सुन लो| मैं अपने आखरी वक़्त में तुमसे कुछ छुपाना नहीं चाहता|


वो एक सौंदर्य से भरी हुई, कामुक कर देने वाली, परी के समान एक चंचल कन्या थी, जिसका नाम वर्ण व्यवस्था था| मैंने उसे पहली बार देखा तो पहली नज़र में ही प्यार हो गया| तब मुझे सिखाया जा रहा था कि मुझे समाज में किन लोगो से तुम्हे बचाना है और तुम्हारा हक़ दिलाना है| उस समय मेरी मानो दिल की धड़कन ही रुक गयी जब मुझे उसी लड़की को दिखा कर कहा गया कि वो मेरी दुश्मन है, “ इससे अपने हक़ की लड़ाई लड़नी है तुम्हे”| पर उसका नाम कुछ अलग लिया गया- ‘जातिवाद’| उसका वह रूप काफी डरावना था| उस सुन्दर काया के पीछे की काली परछाई मैं साफ़ देख पा रहा था| उसने जैसे पूरे देश को अपनी जागीर समझ लिया हो और हद तो तब हो गयी जब तुम लोगो को तुम्हारे हको से वंचित रखा जाने लगा| तब मैंने ठान लिया कि इस प्रेम रोग को यहीं समाप्त कर देना उचित रहेगा और मैंने उसे अपने दिल की अँधेरी कोठरी में कही दफ़न कर दिया और तभी से मैं तुम लोगो का भरण-पोषण करता आ रहा हूँ, अपनी संतान की तरह|

आज शाम को जब मैं अपने आप मैं ही खोया हुआ सा शहर की सड़कों से होता हुआ एक गाँव की तरफ गया और उसके होने की कहीं भी खबर नहीं मिली| तो मैंने लोगो से पूछा| ये वही लोग थे जिनका उसने-लालन पालन किया और आज इन्ही ने उसे घर से निकल दिया| शायद ये समझ गए हैं कि उसके जीवन निर्वाह के रास्ते गलत थे और जब इस आधुनिक युग में लोगो पे रोजगार नहीं होता , दो वक़्त की रोटी नहीं होती और रहने का ठिकाना नहीं होता तो फिर काहे का बड़प्पन| मैं आज देख पा रहा हूँ; कुछ लोग तुम में से और कुछ इनमें से, जो एक साथ मिलकर एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और उचित मूल्यों पर जीवन निर्वाह कर रहे हैं| ये वह ओग हैं जिन्होंने काफी समय पहले ही उसका दामन छोड़ दिया पर कुछ अब भी लोभवश उसी के बताये राश्ते पर चल रहे हैं| हालांकि अब वो इनके साथ भी नहीं रहती| पर कहा गयी वो?

मैं उसे ढूंढने निकल गया और रात हो गयी| तब एक सुनसान जगह पर, इस शोर शराबे से दूर मुझे उसकी छवि दिखाई दी| वो कुछ बदली-बदली सी लग रही थी और बूढी भी हो गयी थी| उम्र में मुझसे ज्यादा पर शायद दिखने में मेरे जितनी| उम्र और काया के बीच अछा तालमेल बना के रखा होगा इसने; तभी मुह में झुर्रियां आने के बाद भी इसके चेहरे की कांति पहले से कई गुना बाद गयी है| मैं धीरे से उसके पास गया| तभी एक झोपड़ी के अंदर से किसी की आवाज़ आई और उसने उसे भीतर बुला लिया| मैं वहाँ नहीं जाना चाहता था, पर मैं खुद को रोक नहीं पाया और मेरे कदम झोपड़ी की ओर ब ने लगे| मैंने दरवाजे पर दस्तक दी तो एक युवक बाहर आया और उसने मुझसे वहाँ आने का कारण पूछा; पर मैं कुछ बोल नहीं पाया| इतने में उसने मुझसे अंदर आने को कहा और मैं उसके पीछे-पीछे चल दिया| अंदर झोपड़ी में भी वो कहीं दिखाई नहीं दी; पर तीन अन्य युवक दिखाई दिए|

उन चारो ने मिलकर मुझे आदर दिया और खातिरदारी की| उनके संस्कारो से ही प्रतीत होता था कि उनमे काफी प्रेम भाव है| मैंने उनसे उनका नाम जानना चाहा तो सभी एक साथ बोले “मैं भारतीय हूँ”| मैं अचंभित था कि इन चारो का एक सा नाम कैसे हो सकता है| फिर भी मैंने उनसे दोबारा अपना अलग-अलग नाम बताने को कहा; पर फिर भी हर एक ने वही उत्तर दिया, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी| मेरे चेहरे के हाव-भाव ही बदल गए| तभी उनमे से सबसे बड़े ने मुझसे आकर कहा, “ मान्यवर! कभी इस पाखंडी समाज ने हमें अपने स्वार्थ के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सूद्र नाम दिया था और हमारे बीच मतभेद पैदा कर दिए थे; पर आज हम एक हैं और हमें उस ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है कि इंसान जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से महान होता है”| उसने मुझसे कहा कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि समाज के अनैतिक तत्व उनके बारे में क्या कहते है और क्या सोचते हैं; पर वो इतना जानते हैं कि अगर वो चारो भाई आपस में मिलकर रहे तो उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता| उनकी बातें सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई और मैं जहाँ अपने द्वारा किये गए कर्मो को खोज रहा था उसका फल मुझे इस गरीब की कुटिया में आकर मिला| यहाँ सभी अमीर थे; पर मैं नहीं कह सकता कि कौन ज्यादा अमीर था| सभी तो एक जैसे ही थे; आपस में मेलजोल से रहते हुए|

वैसे उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ये ज्ञान उनकी माँ ने दिया और उसने मुझसे मिलाने के लिए अपनी माँ को अंदर रसोई में आवाज़ दी “ माँ”| मैंने जब उनसे उनकी माँ का नाम पूछा तो उन्होंने बताया की उसका नाम वर्ण व्यवस्था था| तभी मुझे उस देवी के दर्शन हुए; पर ये तो वही जातिवाद थी जिससे मैं आज तक लड़ता आया था| ये वो तो नहीं हो सकती थी|

रात के खाने के पश्चात हम दोनों में बातें हुई|हम दोनों एक दूसरे को नम आँखों से निहार रहे थे| उसने मुझे बताया कि माँ-बाप के देहांत के बाद उसका पालन-पोषण उसके चाचा ने किया| माँ बाप ने जो उसे शिक्षा दी थी और जो उसका कर्तव्य था, वो शिक्ष अभी अधूरी ही थी| तभी से उसके चाचा उसको बड़ा करते आये थे और उन्होंने ही अन्य लोगो के लिए उसके दिल में जहर भरा| बुढ़ापे में घर से निकाले जाने के बाद वो अपने माँ-बाप के घर वापस आई जहाँ पुराने खंडहरों के अलावा कुछ नहीं था; थी तो कुछ यादें और एक पूराना खत जिसमें लिखा था-




प्रिय पुत्री!

वर्ण व्यवस्था,

हम तुम्हे बताना चाहते हैं की हमारे पास ज्यादा समय नहीं है . पता नहीं तुम ये पत्र कभी पड़ोगी भी या नहीं| पर जब तक तुम इसे पढ़ोगी तो तुम्हे सच्चाई का पता चल चुका होगा| तुम्हारा चाचा, जो हमारे बाद तुम्हारा संरक्षक बनेगा, बाकी लोगो को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता और इसीलिए उसे हम पसंद नहीं थे, क्युकी हमने कभी ऐसा नहीं चाहा| तुम अभी छोटी हो और तुम्हारी शिक्षा अधूरी है ; पर मैं जानता हूँ कि समय के साथ-साथ तुम अपने कर्तव्यों को समझने लगोगी, अगर उस पाखंडी चाचा से बच सकी तो| फिर भी जाते- जाते में तुम्हे संक्षेप में कुछ ज्ञान देना चाहता हूँ -

· सभी लोग कर्मो के आधार पर श्रेष्ठता को प्राप्त करते हैं जन्म के आधार पर नहीं|
· इंसान के धर्म करम से पहले उसे ये सोच लेना चाहिए कि वो मानवता के हित में है या नहीं|
· आपस में प्यार और सौहार्द ही तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है|
· इहलोक के सद्कर्म परलोक में मनुष्य की आत्मा को मोक्ष प्रदान करते है|
· रंग- रूप इत्यादि , ये सब भौगौलिक आधार पर ही विविध हैं| जो भी इस आधार पर समाज में विष घोलता है वह इस समाज में एक राक्षस की तरह है और पुत्री! तुम्हे अपनी प्रतिभा और सोचने समझने की शक्ति से उस राक्षस का वध करना है|

 अब बाकी सब तुम पर है|

अलविदा!




------------------------------------------------ ---------------------------------आज मैं और वर्ण व्यवस्था साथ साथ है , हम अब एक हैं , एक दूजे के प्यार में बंधे हुए और वो चार लड़के उन्होंने मुझे अपने साथ रखने से इंकार कर दिया क्यूंकि वो सत्य को जानते हैं और कर्म पर विश्वास करते हैं | उन्हें सहानुभूति में मिला सुख अस्वीकार है | मैं कह सकता हूँ कि आज का युवा समाज स्वावलम्बी है | ऐसे में मेरा कर्त्तव्य ये है कि मैं तुम्हे भी सच से अवगत कराऊँ| जिस तरह वर्णव्यवस्था के माँ- बाप एक पत्र के सहारे उसे जीवन का सत्य समझा गए वैसे ही मैं ये ज्ञान तुम्हारे साथ साँझा कर रहा हूँ| हम दोनों ही अब बूढ़े हैं और एक साथ ही इस संसार को छोड़कर जल्द ही चले जायेंगे| बस तुम सबको आपस में मिलजुलकर रहते हुए देखना चाहते हैं और अब ये तुम्हारा कर्तव्य है कि जो तुम्हारे भाई लोग पीछे छूट गए हैं उनको खुद की मदद से और अपने अन्य नए भाइयों की मदद से जीवन पथ पर अग्रसर करो| वर्णव्यवस्था भी यही चाहती है और उसके वो चार जवान लड़के तुमसे जल्द आकर मिलेंगे| फिर तुम अन्य लोगो को भी ये ज्ञान बांटना| मैं जितना तुम्हे दे सकता था उतना मैंने दिया| अब ये कार्य मैं और नहीं कर सकता , सच को जान लेने के बाद तो कदापि नही|

और हाँ जाते जाते एक बहुमूल्य नसीहत तुम्हे देना चाहता हूँ कि आज भी वर्णव्यवस्था का चाचा समाज में कही डेरा डाले हुए है| हो सके तो उसे जड़ से समाप्त कर दो या उससे बचकर रहो|. इसी में तुम सबकी भलाई है और इस कार्य में वो चार युवक तुम्हारी मदद के लिए निकल चुके हैं| उनका आतिथ्य अपने परिवार का सदस्य मानकर ही करना और एक परिवार में हमेशा बंध कर रहना| वर्णव्यवस्था के माँ बाप के द्वारा लिखे पत्र में बताई गयी सीखो को क्रियान्वित करना| यही तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा------------------------------------------------------------------------------------------------

तुम्हारा
बूढ़ा पिता /संरक्षक!

आरक्षण    




With the spoken pen of awareness

HEM CHANDRA TIWARI ‘Mhicha’



 


Friday 28 August 2015

रक्त से लिपटी है धरती

रक्त से लिपटी है धरती


रक्तसिंचित भूधरा है कांपता हर अंग है
रक्त से लिपटी है धरती लाल इसका रंग है
कुछ समय पहले यहाँ तो उड़ रही थी तितलियाँ
पर न जाने आज क्यों रो रहा ये कंठ है ...

बर्फ की छाती फटी है बह रही है धार जो
तीव्र नाद कर रही है वेग इसका मंद है
रिंस रहा है रक्त जो जननी माँ के गर्भ में
देख कर ये नरसंहार माँ की ममता दंग है ...

चील यूँ मंडरा रहे है लाशो के इन ढेर पे
चंचल मन शिथिल पड़ा है कैसा ये अचम्भ है
शुष्क ठंडी वादियों में कटती हुई पतंग है
रक्त से लिपटी धरा है लाल इसका रंग है ....




by
Hem Chandra Tiwari
'MHICHA'


Wednesday 26 August 2015

एक सार्वजनिक पत्र गुजरात आंदोलन के नायक हार्दिक पटेल के नाम

एक सार्वजनिक पत्र गुजरात आंदोलन के नायक हार्दिक पटेल के नाम
 
 
प्रिय  मित्र!                                                                                                              दिनांक :  25/08/2015
हार्दिक  पटेल  जी                                                                                                  बुधवार, समय : 02:39  

आज जब टेलीविजन पर न्यूज़ चैनल के माध्यम से आपके द्वारा चलाये गए 'आरक्षण आंदोलन' का विकराल रूप देखा तो आपके बारे में जानने की उत्सुकता हुई और 'नवभारत टाइम्स' की फेसबुक पर की गयी एक पोस्ट के द्वारा मैं आपके बारे में कुछ बातें जान पाया| निसंदेह आपमें नेतृत्व करने की असीम प्रतिभा है और शायद आप इन सियासी जंजालों से झुंझले हुए हैं, नहीं तो मात्र बाईस वर्ष की उम्र में इतने विशाल जनसमूह का नेतृत्व करना किसी सामान्य युवक के वश की बात नहीं|

जितना मैं समझ पाया उस हिसाब से पूरी आफत की जड़ 'भारत में निरंकुश आरक्षण' है, एवं इसमें कोई संदेह नहीं कि आरक्षण के काले बादल प्रतिभा के सूर्य की कांति को उद्दीप्त नहीं होने दे रही| ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि इन बादलों को हटायें कि इन्हें बढ़ावा दिया जाए; वरना वह दिन दूर नहीं जब पूरा देश इस आरक्षण की आग में झुलस रहा होगा और प्रतिभा देश के किसी कोने में सिर छिपाने की जगह ढूंढ रही होगी|

इतिहास के पन्नों में गुर्जर और मराठा के बाद एक और नाम जुड़ गया 'पटेल' का, जिन्होंने आरक्षण की मांग की| शायद वाकई वर्तमान भारत में अब प्रतिभा का कोई मोल नहीं रहा| आज शायद मैं भी वही बन जाऊं जिसके (आरक्षण के ) मैं खिलाफ हूँ और आरक्षण की छत्रछाया में अपना जीवन सफल भी कर लूँ; पर आने वाली प्रतिभाशाली युवापीढ़ी को क्या जवाब दूँगा? वो फिर तरसेंगे और तड़पेंगे अपने हक़ को पाने के लिए और हर बार एक नया हार्दिक पटेल खड़ा होकर उनका नेतृत्व कर रहा होगा और फिर से सड़को पर देह्सत का नंगा नाच होगा| अगर ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब देश का हर समुदाय आरक्षित होगा और हर क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से भारत का बंटवारा होगा जैसे एक परिवार में भाइयों के बीच जमीं जायजाद को लेकर होता है|

मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मैं इस आंदोलन में आपके साथ नहीं हूँ, इसलिए नहीं कि मैं एक पटेल नहीं हूँ बल्कि इसलिए कि मैं आरक्षण का एक सताया हुआ सामान्य जाती का युवक हूँ, जो शायद आपसे सहमत होता अगर ये आंदोलन आरक्षण मांगने कि बजाय आरक्षण हटाने के लिए किया जाता|

मैं उम्र में आपसे दो वर्ष बड़ा हूँ और शायद तजुर्बे में आपसे छोटा पर एक आम इंसान कि हैसियत से आपसे ये गुजारिश करता हूँ कि इस आंदोलन का रुख मोड़कर आरक्षण हटाने के लिए किया जाये| अगर मेरे इस सार्वजनिक पत्र ने आपकी शान में कोई गुस्ताखी कि हो तो बड़ा भाई होने के नाते आपसे क्षमा की आशा रखता हूँ|

आपका प्रिय मित्र!
एक सामान्य युवक

Monday 24 August 2015

कुछ लम्हे याद आते है



कुछ लम्हे याद आते है
जब मैं था छोटा सा अबोध, खुले ही थे अभी शून्य कपोल
माँ की प्यार भरी पुचकार कुछ जाती थी बोल
माँ के आँचल की छाँव, वह देश वह गांव
उन दोस्तों के लतीफे हर पल याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है

बचपन के बागान में, मासूमियत के खलिहान में
जन्नत के जहाँ में, माँ-बाप की पनाह में
बीते वो हर लम्हे याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है

सूरज की तप्ति धूप से, पेड़ो से लटके आमों से
नदी के बहते पानी से, बचपन की जिंदगानी से
जुड़े हर पल याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है

घर का वह आँगन, दुकान के ऊपर मकान
स्कूल का परिसर, वो खेल का मैदान
दोस्तों के साथ बीते वो हर पल याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है

भाई -बहिनो का प्यार, मार व फटकार
पापा का दुलार, माँ की पुचकार
आज लिखता हूँ अकेला बैठा किसी कोने में खाली कमरे के
अनजान शहर में अपनों के बीच बेगाना बनकर
हर नए दिन कुछ नया सोचकर अपने दिल का फ़साना लिखकर
सोचता हूँ काश आज भी वो पल साथ होते
सोचता हूँ उन्हें हर पल, जो हर पल याद आते है
साँसों में धड़कते है, शरीर में बहते है
दिल में रहते है, आंसुओ में छलकते है
वो पल जो हर पल याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है
कुछ लम्हे याद आते है ....

#mhicha



'


Sunday 23 August 2015

गुजरात दंगों के लिये कौन जिम्मेदार है?


 गुजरात दंगों के लिये कौन जिम्मेदार है?


किसने किया, क्यों किया, गुजरात दंगों के लिये कौन जिम्मेदार है? क्या यह एक राजनीतिक षङयंत्र था या धार्मिक बवंडर? ये बातें आज भी पचाये नहीं पचती। पर एक आम आदमी जो गुजरात दंगों में मारे गये हजारों इंसानों की तरह ही निर्दोष एवं लाचार है, उसके लिये ये प्रश्न कोई मायने नहीं रखते। वह बस इतना जानता है कि दंगों में कितने निर्दोष लोग मारे गये, चाहे वो हिन्दू हों या मुस्लिम, कैसा हैवानियत का नंगा नाच किया गया। जो ऐसी ही सोच रखता है वह है एक आम इंसान, जो हर काम करने से पहले उसके नतीजे भाँप लेता है। 

किसने किये दंगे- हमने हम सभी ने मिलकर
धर्म के पाखंडियों का स्वार्थ सिद्ध करवाने वाले कौन थे- हम
अपनों का खून बहाने वाले कौन थे- हम
बच्चों को जिंदा जलाने वाले कौन थे- हम
और शोक मनाने वाले भी हम ही हैं।

हमें दरअसल उस परमपिता परमेश्वर ने दिल और दिमाग तो दिया पर कैसे उपयोग किया जाना है यह नहीं सिखाया। हम सिर्फ दूसरों के कहे पर चलते हैं और शायद आगे भी ऐसा ही करते रहें।

साबरमती ट्रेन में 58 लोगों को जिंदा जला देना और उसके बाद मौत का नंगा नाच, वाकइ आज भी दिल दहला देता है। आज भी लोगों की आँखों में वह खौफनाक मंजर के दृश्य जाग उठते हैं जब कभी फिर से सांप्रदायिक लोग गढे हुए मुर्दों में प्राण फूँकने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। हिंदू कहते हैं कि हमारे लोगों का कत्ल हुआ और मुस्लिम कहते हैं कि हमारे लोगों का कत्ल हुआ पर सत्य तो यह है कि जब-जब पत्थर से पत्थर टकराता है, दोनों ही टूटकर बिखर जाते हैं। सत्य को सभी जानते हैं कि गुजरात दंगों में जहा 750 मुस्लिम समुदाय के लोग मरे थे तो वहीं लगभग 250 हिंदू समुदाय के लोग भी दंगों का शिकार हुए थे, ऐसे में सिर्फ यह कहना कि कि कोई एक कौम ही इन सबके लिए जिम्मेदार है, समझदारी नहीं है; अपितु इसके उन आस्तीन के साँपों को पहचानना एवं उनसे बचना जरूरी है जो सांप्रदायिकता के विषैले विष से समाज, देश और विश्व में बंधुत्व की भावना को हर रहे हैं। 

Blogger
Hem Chandra Tiwari 'MHICHA'
amazingthou.blogspot.com

Sunday 16 August 2015

तू अनजाने तू अनजाने


जिंदगी का सार न जाने तू अनजाने तू अनजाने
फिर क्यों ऐसे हार है माने तू अनजाने तू अनजाने

सुख की चांदी जाती रहेगी गम की आंधी आती रहेगी
नए पल की शुरुआत न जाने तू अनजाने तू अनजाने
जिंदगी का सार न जाने तू अनजाने तू अनजाने
फिर क्यों ऐसे हार है माने तू अनजाने तू अनजाने  
इस पल जो भी पा न सका तू सपने सच जो बना न सका तू
इसके पीछे का राज न जाने तू अनजाने तू अनजाने
जिंदगी का सार न जाने तू अनजाने तू अनजाने
फिर क्यों ऐसे हार है माने तू अनजाने तू अनजाने
जिसको अपना बना न सका तू जिसके दिल में समां न सका तू
वो तेरी परवाह क्या जाने तू अनजाने तू अनजाने
जिंदगी का सार न जाने तू अनजाने तू अनजाने
फिर क्यों ऐसे हार है माने तू अनजाने तू अनजाने
तेरे मन जो ज्योत जागेगी गम की चादर वही फटेगी
अपने मन का विश्वास न जाने तू अनजाने तू अनजाने
गम की आंधी जाती रहेगी ओ अनजाने ओ अनजाने
सुख की चांदी आती रहेगी ओ अनजाने ओ अनजाने

जिंदगी का सार न जाने तू अनजाने तू अनजाने
फिर क्यों ऐसे हार है माने तू अनजाने तू अनजाने
  

Saturday 15 August 2015

आज फिर लिखने को जी करता है

क्यों आज फिर लिखने को जी करता है
पिछले पन्ने इस किताब के फिर से पड़ने को जी करता है
पर लगता है बिखरे पन्नो को समेट कर रखना भूल गया था
अब तक तो इन पन्नो से मैं, न जाने कितना ऊब गया था
पर आज जो न पाऊँ इनको, इनको जीने का जी करता है
न जाने क्यों
क्यों आज फिर लिखने को जी करता है

भूल गया मैं उस मिज़ाज को जिसको मैं जिया करता था
लेना चाहुँगा स्वाद उस रस का जिसको मैं पिया करता था
प्रेमपुष्प के अंकुर को जब बोया था मैंने उस पल क्यों बोकर उस अंकुर को मैं, सींचना ही भूल गया जब आज वो अंकुर बेजान पड़ा है भूधर के गर्भाशय में
मधुर सुगंध उस प्रेमपुष्प की पा जाने को जी करता है
न जाने क्यों
क्यों आज फिर लिखने को जी करता है

हत-विषाद माहौल बना है, जीवन ये लगता शापित है
खुद से ही हूँ जूझ रहा, क्यों उस दुनिया का आदी हूँ क्यों न बहता नदियों की तरह, क्यों न अनिल सा वेगित हूँक्यों न प्रकाश सा वेगवान, क्यों न ज्योत सा दीपमान
क्यों न शीतल हूँ चन्द्र समान, क्यों न पाया है दिव्य ज्ञान
अंतर-आत्मा भी सोयी है, शून्य वियोम मैं खोयी है
ये सब विचार से कुंठित होकर, नवचेतन से सिंचित होकर
आगे बढ़ने को जी करता है, जीने को जी करता है
मधुमृत पिने को जी करता है
न जाने क्यों
आज फिर जीने को जी करता है ...क्यों आज फिर लिखने को जी करता है






Tuesday 11 August 2015

ON THAT DAY

ON THAT DAY
The beautiful valley
I visited an evening, a rainy day
Fogy air made me blind
The chilled and sweet odour from plants
Made me drugged filled with love towards
The peak of the hill which I saw, passing the valley
I wished to climb the fountain falling down from the hill
And to reach the peak, nonsense!!!!

I was tired and exhausted but excited to be there
I started towards the hill
Climbing and crawling on stones and mud
I reached at the top, giant green meadow
And a dead end, I saw another world from there
The fade sun but no sky only dark clouds
Were choking the throat of the sun
He was struggling to be alive, I felt pity for him
I went into a foggy storm, became blind
But still walking, the storm passed away
I saw the sun shining and smiling, defeated the clouds and fog
Became reddish yellow, blinking his eyes, said good bye to me
I waved my hands and thanked him to be there for a company
Now we are friends and I often go there to see him



by
Hem Chandra Tiwari
'MHICHA'

THE CHILD BEGGER: A SURVIVER

THE CHILD BEGGER: A SURVIVER

Look at my eyes, these can't lie
I'm not begging but surviving
I don't wash my hair, you do with shampoo
I don't wash my face, you do with costly face wash
I don't smile, don't laugh, but you do looking at me
I don't misbehave but yoy do
I don't because I'm only surviving

 No happiness, no sorrow, but only hunger
Look at my torn clothes, I used to wear it
I can't buy these costly stuffs, but you do
I don't have any footware, but you do

You show pity on me, seeing me on footpath
Some of you give me food but not enough
Some of you give me haterates, I accept
Because it's only you can give to society
Your harsh nature
That's why I'm here in footpath, my destiny, but you made it
Left me out on my birth
You made me beg for surviving
It's not my fault, you did it but you can't accept, Alas!!!!

I want my place in society, my birth rights
One of you gave me birth and left behind
Everyone talk about me, don't to beg, but never say
"Lets come my child, I'm here to nourish you"

I want love and care from a family
I'm hungry but eager to meet you
My becoming guardians, I ask you
CAN YOU ADOPT ME?
I'm about to die in this selfish world
I'm asking you but not begging
Because I'm only surviving

by
Hem Chandra Tiwari
'MHICHA'

Friday 7 August 2015

एक नई राह


एक नई राह

आज सपने फिर से हुए उजागर
जैसे है नई एक राह बनी
पतझड़ की आंधी थमी अभी और
नव-जीवन की आश बनी

उज्जवल प्रकाश से भर मन को
जब उगता सूर्य प्रदीप्त हुआ
विपदा की धुंध है छँटी हुई अब
स्वर्णिम लाली है खिली-खिली

पुरापाषाण भी भव्य लग रहे
जैसे दिव्य प्राण की मूरत हो
भूधर की ओंस भी बुझी-बुझी सी
जैसे नव-चेतन की सूरत हो

नदियों का कल-कल करता स्वर भी
मृदु वीणा की तान लगी
आज सपने फिर से हुए उजागर
जैसे है नई एक राह बनी
 

by
Hem Chandra Tiwari
'MHICHA'


कई भाई लोग साथ आ रहे हैं, अच्छा लग रहा है, एक नया भारत दिख रहा है। आजाद हिंद के सपनो का अब फिर परचम लहरा है। उन्नति के शिखरों में अब राज्य ह...