Saturday 15 August 2015

आज फिर लिखने को जी करता है

क्यों आज फिर लिखने को जी करता है
पिछले पन्ने इस किताब के फिर से पड़ने को जी करता है
पर लगता है बिखरे पन्नो को समेट कर रखना भूल गया था
अब तक तो इन पन्नो से मैं, न जाने कितना ऊब गया था
पर आज जो न पाऊँ इनको, इनको जीने का जी करता है
न जाने क्यों
क्यों आज फिर लिखने को जी करता है

भूल गया मैं उस मिज़ाज को जिसको मैं जिया करता था
लेना चाहुँगा स्वाद उस रस का जिसको मैं पिया करता था
प्रेमपुष्प के अंकुर को जब बोया था मैंने उस पल क्यों बोकर उस अंकुर को मैं, सींचना ही भूल गया जब आज वो अंकुर बेजान पड़ा है भूधर के गर्भाशय में
मधुर सुगंध उस प्रेमपुष्प की पा जाने को जी करता है
न जाने क्यों
क्यों आज फिर लिखने को जी करता है

हत-विषाद माहौल बना है, जीवन ये लगता शापित है
खुद से ही हूँ जूझ रहा, क्यों उस दुनिया का आदी हूँ क्यों न बहता नदियों की तरह, क्यों न अनिल सा वेगित हूँक्यों न प्रकाश सा वेगवान, क्यों न ज्योत सा दीपमान
क्यों न शीतल हूँ चन्द्र समान, क्यों न पाया है दिव्य ज्ञान
अंतर-आत्मा भी सोयी है, शून्य वियोम मैं खोयी है
ये सब विचार से कुंठित होकर, नवचेतन से सिंचित होकर
आगे बढ़ने को जी करता है, जीने को जी करता है
मधुमृत पिने को जी करता है
न जाने क्यों
आज फिर जीने को जी करता है ...क्यों आज फिर लिखने को जी करता है






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