Saturday 29 August 2015

आरक्षण की आत्मकथा, एक कल्पना, एक सोच



 आरक्षण की आत्मकथा, एक कल्पना, एक सोच
मैं आरक्षण हूँ|भारत देश में मेरा जन्म हुआ, यहीं पला-बड़ा और यहीं मेरा अंत भी सुनिश्चित है| जैसे हर कोई इस संसार में जन्म लेता है, किसी एक खास मकसद के लिए, शायद मेरा भी कोई मकसद रहा होगा| जिसने मुझे इस समाज में जन्म दिया, वह इंसान काफी नेक दिल था पर ये समाज हर तरह के प्राणियों से भरा पड़ा है; इनके बीच अपने कार्यसिद्धि को प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है | मुझे जहाँ तक याद है- मेरा जन्म हुआ उन लोगो को समाज के अन्य वर्गो की तरह अग्रसर करने के लिए जो जातिवाद नामक राक्षस के आतंक में कहीं पीछे छूट गए, जो अपने जीवन यापन को बोझ समझने लगे, जातिवाद ने जिनके आत्मविश्वास को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया; मैं बनाया गया उन लोगो की स्तिथि सुधरने के लिए जो कुछ अहंकारी और अंधविस्वाशी लोगो के पाखंडों के चलते अपने जीवन को शापित सहमझने लगे|

मैंने पूरी तरह से कोशिश की कि में अपने जीवन को सार्थक कर पाऊँ, उन लोगो की पूरी तरह से मदद करके और काफी हद तक मैंने किया भी| जो मेरे संरक्षक थे, वो अब नहीं रहे; पर आज कुछ लोभी लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मेरा संरक्षक बने घूमते हैं और वो इंसान भी तो अब वैसे नहीं रहे जिनके लिए मुझे बनाया गया था| मेरे बनाना वाले का दिल बहुत बड़ा था| उसने चाहा था कि सभी को समान रूप से हक़ मिले और जिन्हे नहीं मिल पाता, मैं उन्हें उनका हक़ दिलाने में मदद करू| इस कार्य के लिए मुझे शासन और प्रशाशन दोनों से ही अधिकार प्राप्त हुए और उन अधिकारों का मैंने अच्छी तरह से उपयोग किया|

पर आज जब समाज में मैंने लोगो को मेरे लिए झगड़ते देखा तो बहुत ही ग्लानि हुई| आज जो लोग मेरे द्वारा सक्षम बनाये गए, वो भी उन्ही लोगो में शामिल हो गए हैं जो दूसरे पिछड़े लोगो को आगे नहीं बढ़ने दे रहे| तुम सोच रहे होंगे कि मुझे आज अपनी आत्मकथा लिखने की जरुरत क्यों महसूस हुई| वो इसलिए क्यूंकि समय बदल रहा है और समय के साथ-साथ समाज भी| प्राचीन समय में जो लोग समृद्ध थे, वो आज नहीं रहे और कुछ लोग जो समाज के सताए हुए थे उनमे से काफी लोगो को में समृद्ध बना चुका हूँ अपना कर्म करते-करते मेरी उम्र हो गयी है |अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ| मेरे कंधो में अब वो जान न रही कि पूरे समाज का बोझ अपने सर पे रखकर चलूँ| मेरे बच्चों मुझे अब आराम की जरुरत है| तुम्हारी जरूरतें पूरी करते-करते न जाने मैंने कितनो का हक़ छीना है, न जाने कितनो की आशाओ पे पानी फेरा है और न जाने अनजाने में कितने स्वार्थी और लोभी लोगों का घर भरा है| इन सबके लिए शायद परमेश्वर मुझे कभी माफ़ नहीं करे और मुझे इस चीज का अफ़सोस भी नहीं है क्यूंकि मैंने जो कुछ भी किया अपने रोते-बिलखते बच्चों के लिए किया| आज समय आ गया है जब इस बूढ़े को चैन से मरने दिया जाए| मैं अब और कुछ नहीं कर सकता| मेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है और शरीर पे कुछ कोड भी निकल आया है| ये मेरे पापो का फल है शायद या उन तमाम लोगो की बद्दुआ जिनके हाथ से निवाला छीनकर मैंने तुम्हे दिया| अब वक़्त आ गया है कि तुम अब अपने पैरों पे खड़े हो जाओ और अपना और दुसरो का हित जानकर कर्म करो और इस संसार में आने का अपना उद्देश्य सिद्ध करो|

मैं तुम्हे अपनी जवानी के दिनों की एक बात बताना चाहता हूँ, जिसे मैंने तुमसे आजतक छिपाए रखा| मुझे मेरे जीवन में एक लड़की से प्यार हुआ तब में छोटा था और वो कौमार्यावस्था को पार कर चुकी थी | शायद तुम्हे हैरानी हो रही होगी और तुम्हे ये बात समझ भी न आये, पर सच तो ये है कि प्यार किसी से भी हो सकता है| आज तक तुमने हीर-राँझा, लैला-मजनू की कहानी पड़ी होगी; आज एक कहानी मेरी भी सुन लो| मैं अपने आखरी वक़्त में तुमसे कुछ छुपाना नहीं चाहता|


वो एक सौंदर्य से भरी हुई, कामुक कर देने वाली, परी के समान एक चंचल कन्या थी, जिसका नाम वर्ण व्यवस्था था| मैंने उसे पहली बार देखा तो पहली नज़र में ही प्यार हो गया| तब मुझे सिखाया जा रहा था कि मुझे समाज में किन लोगो से तुम्हे बचाना है और तुम्हारा हक़ दिलाना है| उस समय मेरी मानो दिल की धड़कन ही रुक गयी जब मुझे उसी लड़की को दिखा कर कहा गया कि वो मेरी दुश्मन है, “ इससे अपने हक़ की लड़ाई लड़नी है तुम्हे”| पर उसका नाम कुछ अलग लिया गया- ‘जातिवाद’| उसका वह रूप काफी डरावना था| उस सुन्दर काया के पीछे की काली परछाई मैं साफ़ देख पा रहा था| उसने जैसे पूरे देश को अपनी जागीर समझ लिया हो और हद तो तब हो गयी जब तुम लोगो को तुम्हारे हको से वंचित रखा जाने लगा| तब मैंने ठान लिया कि इस प्रेम रोग को यहीं समाप्त कर देना उचित रहेगा और मैंने उसे अपने दिल की अँधेरी कोठरी में कही दफ़न कर दिया और तभी से मैं तुम लोगो का भरण-पोषण करता आ रहा हूँ, अपनी संतान की तरह|

आज शाम को जब मैं अपने आप मैं ही खोया हुआ सा शहर की सड़कों से होता हुआ एक गाँव की तरफ गया और उसके होने की कहीं भी खबर नहीं मिली| तो मैंने लोगो से पूछा| ये वही लोग थे जिनका उसने-लालन पालन किया और आज इन्ही ने उसे घर से निकल दिया| शायद ये समझ गए हैं कि उसके जीवन निर्वाह के रास्ते गलत थे और जब इस आधुनिक युग में लोगो पे रोजगार नहीं होता , दो वक़्त की रोटी नहीं होती और रहने का ठिकाना नहीं होता तो फिर काहे का बड़प्पन| मैं आज देख पा रहा हूँ; कुछ लोग तुम में से और कुछ इनमें से, जो एक साथ मिलकर एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और उचित मूल्यों पर जीवन निर्वाह कर रहे हैं| ये वह ओग हैं जिन्होंने काफी समय पहले ही उसका दामन छोड़ दिया पर कुछ अब भी लोभवश उसी के बताये राश्ते पर चल रहे हैं| हालांकि अब वो इनके साथ भी नहीं रहती| पर कहा गयी वो?

मैं उसे ढूंढने निकल गया और रात हो गयी| तब एक सुनसान जगह पर, इस शोर शराबे से दूर मुझे उसकी छवि दिखाई दी| वो कुछ बदली-बदली सी लग रही थी और बूढी भी हो गयी थी| उम्र में मुझसे ज्यादा पर शायद दिखने में मेरे जितनी| उम्र और काया के बीच अछा तालमेल बना के रखा होगा इसने; तभी मुह में झुर्रियां आने के बाद भी इसके चेहरे की कांति पहले से कई गुना बाद गयी है| मैं धीरे से उसके पास गया| तभी एक झोपड़ी के अंदर से किसी की आवाज़ आई और उसने उसे भीतर बुला लिया| मैं वहाँ नहीं जाना चाहता था, पर मैं खुद को रोक नहीं पाया और मेरे कदम झोपड़ी की ओर ब ने लगे| मैंने दरवाजे पर दस्तक दी तो एक युवक बाहर आया और उसने मुझसे वहाँ आने का कारण पूछा; पर मैं कुछ बोल नहीं पाया| इतने में उसने मुझसे अंदर आने को कहा और मैं उसके पीछे-पीछे चल दिया| अंदर झोपड़ी में भी वो कहीं दिखाई नहीं दी; पर तीन अन्य युवक दिखाई दिए|

उन चारो ने मिलकर मुझे आदर दिया और खातिरदारी की| उनके संस्कारो से ही प्रतीत होता था कि उनमे काफी प्रेम भाव है| मैंने उनसे उनका नाम जानना चाहा तो सभी एक साथ बोले “मैं भारतीय हूँ”| मैं अचंभित था कि इन चारो का एक सा नाम कैसे हो सकता है| फिर भी मैंने उनसे दोबारा अपना अलग-अलग नाम बताने को कहा; पर फिर भी हर एक ने वही उत्तर दिया, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी| मेरे चेहरे के हाव-भाव ही बदल गए| तभी उनमे से सबसे बड़े ने मुझसे आकर कहा, “ मान्यवर! कभी इस पाखंडी समाज ने हमें अपने स्वार्थ के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सूद्र नाम दिया था और हमारे बीच मतभेद पैदा कर दिए थे; पर आज हम एक हैं और हमें उस ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है कि इंसान जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से महान होता है”| उसने मुझसे कहा कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि समाज के अनैतिक तत्व उनके बारे में क्या कहते है और क्या सोचते हैं; पर वो इतना जानते हैं कि अगर वो चारो भाई आपस में मिलकर रहे तो उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता| उनकी बातें सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई और मैं जहाँ अपने द्वारा किये गए कर्मो को खोज रहा था उसका फल मुझे इस गरीब की कुटिया में आकर मिला| यहाँ सभी अमीर थे; पर मैं नहीं कह सकता कि कौन ज्यादा अमीर था| सभी तो एक जैसे ही थे; आपस में मेलजोल से रहते हुए|

वैसे उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ये ज्ञान उनकी माँ ने दिया और उसने मुझसे मिलाने के लिए अपनी माँ को अंदर रसोई में आवाज़ दी “ माँ”| मैंने जब उनसे उनकी माँ का नाम पूछा तो उन्होंने बताया की उसका नाम वर्ण व्यवस्था था| तभी मुझे उस देवी के दर्शन हुए; पर ये तो वही जातिवाद थी जिससे मैं आज तक लड़ता आया था| ये वो तो नहीं हो सकती थी|

रात के खाने के पश्चात हम दोनों में बातें हुई|हम दोनों एक दूसरे को नम आँखों से निहार रहे थे| उसने मुझे बताया कि माँ-बाप के देहांत के बाद उसका पालन-पोषण उसके चाचा ने किया| माँ बाप ने जो उसे शिक्षा दी थी और जो उसका कर्तव्य था, वो शिक्ष अभी अधूरी ही थी| तभी से उसके चाचा उसको बड़ा करते आये थे और उन्होंने ही अन्य लोगो के लिए उसके दिल में जहर भरा| बुढ़ापे में घर से निकाले जाने के बाद वो अपने माँ-बाप के घर वापस आई जहाँ पुराने खंडहरों के अलावा कुछ नहीं था; थी तो कुछ यादें और एक पूराना खत जिसमें लिखा था-




प्रिय पुत्री!

वर्ण व्यवस्था,

हम तुम्हे बताना चाहते हैं की हमारे पास ज्यादा समय नहीं है . पता नहीं तुम ये पत्र कभी पड़ोगी भी या नहीं| पर जब तक तुम इसे पढ़ोगी तो तुम्हे सच्चाई का पता चल चुका होगा| तुम्हारा चाचा, जो हमारे बाद तुम्हारा संरक्षक बनेगा, बाकी लोगो को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता और इसीलिए उसे हम पसंद नहीं थे, क्युकी हमने कभी ऐसा नहीं चाहा| तुम अभी छोटी हो और तुम्हारी शिक्षा अधूरी है ; पर मैं जानता हूँ कि समय के साथ-साथ तुम अपने कर्तव्यों को समझने लगोगी, अगर उस पाखंडी चाचा से बच सकी तो| फिर भी जाते- जाते में तुम्हे संक्षेप में कुछ ज्ञान देना चाहता हूँ -

· सभी लोग कर्मो के आधार पर श्रेष्ठता को प्राप्त करते हैं जन्म के आधार पर नहीं|
· इंसान के धर्म करम से पहले उसे ये सोच लेना चाहिए कि वो मानवता के हित में है या नहीं|
· आपस में प्यार और सौहार्द ही तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है|
· इहलोक के सद्कर्म परलोक में मनुष्य की आत्मा को मोक्ष प्रदान करते है|
· रंग- रूप इत्यादि , ये सब भौगौलिक आधार पर ही विविध हैं| जो भी इस आधार पर समाज में विष घोलता है वह इस समाज में एक राक्षस की तरह है और पुत्री! तुम्हे अपनी प्रतिभा और सोचने समझने की शक्ति से उस राक्षस का वध करना है|

 अब बाकी सब तुम पर है|

अलविदा!




------------------------------------------------ ---------------------------------आज मैं और वर्ण व्यवस्था साथ साथ है , हम अब एक हैं , एक दूजे के प्यार में बंधे हुए और वो चार लड़के उन्होंने मुझे अपने साथ रखने से इंकार कर दिया क्यूंकि वो सत्य को जानते हैं और कर्म पर विश्वास करते हैं | उन्हें सहानुभूति में मिला सुख अस्वीकार है | मैं कह सकता हूँ कि आज का युवा समाज स्वावलम्बी है | ऐसे में मेरा कर्त्तव्य ये है कि मैं तुम्हे भी सच से अवगत कराऊँ| जिस तरह वर्णव्यवस्था के माँ- बाप एक पत्र के सहारे उसे जीवन का सत्य समझा गए वैसे ही मैं ये ज्ञान तुम्हारे साथ साँझा कर रहा हूँ| हम दोनों ही अब बूढ़े हैं और एक साथ ही इस संसार को छोड़कर जल्द ही चले जायेंगे| बस तुम सबको आपस में मिलजुलकर रहते हुए देखना चाहते हैं और अब ये तुम्हारा कर्तव्य है कि जो तुम्हारे भाई लोग पीछे छूट गए हैं उनको खुद की मदद से और अपने अन्य नए भाइयों की मदद से जीवन पथ पर अग्रसर करो| वर्णव्यवस्था भी यही चाहती है और उसके वो चार जवान लड़के तुमसे जल्द आकर मिलेंगे| फिर तुम अन्य लोगो को भी ये ज्ञान बांटना| मैं जितना तुम्हे दे सकता था उतना मैंने दिया| अब ये कार्य मैं और नहीं कर सकता , सच को जान लेने के बाद तो कदापि नही|

और हाँ जाते जाते एक बहुमूल्य नसीहत तुम्हे देना चाहता हूँ कि आज भी वर्णव्यवस्था का चाचा समाज में कही डेरा डाले हुए है| हो सके तो उसे जड़ से समाप्त कर दो या उससे बचकर रहो|. इसी में तुम सबकी भलाई है और इस कार्य में वो चार युवक तुम्हारी मदद के लिए निकल चुके हैं| उनका आतिथ्य अपने परिवार का सदस्य मानकर ही करना और एक परिवार में हमेशा बंध कर रहना| वर्णव्यवस्था के माँ बाप के द्वारा लिखे पत्र में बताई गयी सीखो को क्रियान्वित करना| यही तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा------------------------------------------------------------------------------------------------

तुम्हारा
बूढ़ा पिता /संरक्षक!

आरक्षण    




With the spoken pen of awareness

HEM CHANDRA TIWARI ‘Mhicha’



 


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