Thursday, 5 January 2017

उम्मीद

तमन्नाओं के जलते दिये यूँ बुझते नहीं
लौ तिलमिलाती बहुत है
उम्मीद बाकी रहती है आख़री क्षण तक
जब तक हौसले टूटते नहीं
नाकामी के तूफानों को भी चीरकर
फिर से जल उठती है एक लौ
उम्मीद की
जो कभी बुझती नहीं।

न जाने कितने ही झौंके संभाल
अपनी चमक को बरक़रार रखती
अंधेरों को हरदम रोशन कर
दिनकर की भाँति,
वो स्वच्छन्द हवाओं से बातें करती
एक तेज़ के साथ कहती उनसे
" लाख चाहे तू जतन कर मेरे वज़ूद को मिटाने की,
फिर अपनी आह समेटे जल उठूँगी और जगमगाऊँगी।"

फिर जल उठती है एक लौ
उम्मीद की
जो कभी बुझती नहीं।

(C)
हेम चंद्र तिवारी

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