बोलो भी कब बोलोगे
गहन निद्रा को त्याग कर बंद आँख कब खोलोगे
बोलो भी कब बोलोगे
कहा चार है दो तुम भी कह दो निंदा नहीं प्यार के बोल
दूजे की निंदा छोड़ो भी अब अपने को कब तोलोगे
बोलो भी कब बोलोगे
तू भी मुसाफिर मैं भी मुसाफिर एक ही राह है मंजिल एक
साथ चलो सब मिल जुलकर बोझिल बेड़ियाँ कब तोड़ोगे
बोलो भी कब बोलोगे
मैं हिन्दू तू मुस्लिम कहता धर्मो का करते गुणगान
कोई गा रहा मौला -मौला कोई जप रहा राम- राम
ऊपर वाले से प्रीत लगाई आपस में दिल कब जोड़ोगे
बोलो भी कब बोलोगे
धर्म की सीख का पाठ पड़ा है फिर भी दुश्मन क्यों आपस में
क्या प्रेम का कोई पाठ नहीं दोनों धर्मो के सिलेबस में
या तो नहीं अच्छे हम विद्यार्थी, या शिक्षा अभी अधूरी है
धर्म ज्ञान की सीखो को अपनाना भी जरुरी है
झूठा घमंड क्यों खुद पर इतना व्यर्थ घमंड कब तोड़ोगे
बोलो भी कब बोलोगे
तू भी इंसान मैं भी इंसान क्या तेरा है क्या मेरा है
प्यार से जी लो इन चंद दिनों को यहीं जनम-जनम का फेरा है
जो प्यार न भावे मन को तेरे तो कर ले अपनी मनमानी
कर धर्म की बातें व्यर्थ अनर्गल फिर न किसी बात की हैरानी
लड़ो-मरो और खून बहाओ यहीं तो धर्म हमें सिखलाता है
यहीं तो तेरा कर्म यहाँ पर जिस पर तू इतना इतराता है
तभी हो सार्थक जन्म हमारा धर्म का होगा जय-जयकार
पर उसको जवाब भी देना होगा जो बैठा इस दुनिया के पार
रो- रो कहता संतानो से इन झगड़ो से मुह कब मोड़ोगे
बोलो भी कब बोलोगे
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