कहने को तो बात बहुत हैं, छिपे हुए कुछ राज बहुत हैं
पत्थर नहीं आदम हूँ मैं, दिल में दफ़न जज्बात बहुत हैं।
क्यों? क्या नहीं जानते हो? अंजान बने फिरते हो हमसे,
अरे मौत क्या मारेगी?
हमें क़त्ल करने को तेरी ये करामात बहुत हैं।
ऐसा नहीं के समझ नहीं थी हमें, नादानियाँ चाहे की हों,
महसूस तो होता होगा तुम्हें भी?
जहाँ प्रीत की तान बजती थी, वो रातें अब सुनसान बहुत हैं।
या कोई जुगनू छिपा रखे हो
या कोई जुगनू छिपा रखे हो हमसे यूँ ही गुमराह करने को
फ़िक्र हो जरा भी तो बता देना,
क्या है ना
इन बातों से हम आजकल परेशान बहुत हैं।
माफ़ करना ग़र कुछ गलत कह गए हम, ज़हन में उमड़ते तूफ़ान बहुत हैं
घर बना रखा था तेरी ख़ातिर सपनो से सजाकर
क्या पता था हमें के शहर में तेरे मकान बहुत हैं।
अक्सर बयाँ नही करते हाल इस बदनसीब का जिसे खिलौना समझ खेल गये तुम
जो चाहते तो हम भी कोई खिलौना खरीद लाते, मेला यहाँ भी लगता है और मेले में दुकान बहुत हैं।
पर क्या करें, फ़ितरत अपनी-अपनी
पर क्या करें, फ़ितरत अपनी-अपनी
पत्थर नहीं आदम हूँ मैं, दिल में दफ़न जज्बात बहुत हैं।
Fabulous sir....
ReplyDeleteधन्यवाद सुरेश भाई। पढ़ने के लिए शुक्रिया। अग्रिम पोस्ट पढ़ने हेतु ब्लॉग को फॉलो करना न भूलें।
DeleteNice
ReplyDeleteThank you dear reader
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