Monday 14 December 2015

बुजुर्ग

बुजुर्ग
एक सहारे के सहारे चलते तुम
झुके कंधो से एक लकड़ी के सहारे चलते तुम
इन चश्मों से अब कुछ ही चेहरे दिखते पर
नग्न आँखों से  दुनिया के सारे रंग देख चुके तुम
खून पसीना एक करके बारह मास मेहनत करके
फ़र्ज़ अपना निभाकरके हौले-हौले कहाँ चलते तुम
रूको घड़ी दो घड़ी और सही, और पहचानो मुझको
याद करो वो दिन जब संग थे हम-तुम
याद करो तुमने ही तो हमको सिंचा था
और तुमने ही तो हमको रोपा था
आने वाले घने काले बादलों से लड़े
सच-दुख की हवाओं में खड़े रहे स्तंभ की तरह तुम
एक सहारे के सहारे चलते तुम
झुके कंधो से एक लकड़ी के सहारे चलते तुम
by
Ravinder Singh Raturi
From Rishikesh, Uttarakhand



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