बुजुर्ग
एक सहारे के सहारे चलते तुम
झुके कंधो से एक लकड़ी के सहारे चलते तुम
इन चश्मों से अब कुछ ही चेहरे दिखते पर
नग्न आँखों से दुनिया के सारे रंग देख चुके तुम
खून पसीना एक करके बारह मास मेहनत करके
फ़र्ज़ अपना निभाकरके हौले-हौले कहाँ चलते तुम
रूको घड़ी दो घड़ी और सही, और पहचानो मुझको
याद करो वो दिन जब संग थे हम-तुम
याद करो तुमने ही तो हमको सिंचा था
और तुमने ही तो हमको रोपा था
आने वाले घने काले बादलों से लड़े
सच-दुख की हवाओं में खड़े रहे स्तंभ की तरह तुम
एक सहारे के सहारे चलते तुम
झुके कंधो से एक लकड़ी के सहारे चलते तुम
by
Ravinder Singh Raturi
Ravinder Singh Raturi
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