मानव प्रकृति: एक विनाश की ओर
ज़मीन राख और
आसमान विलुप्त सा
लगता है
कहींजहाँ काफिले
चला करते थे
आज शमशान सा
लगता है
बिखरेहुए तिनके
बताते हैं यहाँ
कभी पेड़ हुआ
करते थे
येखंडहर, कोई पुराना
मकान सा लगता
है
अश्कों में जमी
धूल, बदनशीबी थी
हमारी
गिरते कभी, तो पता चलता
वोमुकाम कुछ और था और
येमुकाम कुछ और है
आज बैठा हूँ कुछ तिनके उठाकर पेड़ बनाने
बची रख पर
उपज जमाने
ए दीपक से
सूर्य उगाने
सोचता हूँ काश
ये सब पहले
से पता होता
तो ऐसा कभी
ना होता
तो ऐसा कभी
ना होता
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