फिरे बहुत हैं इधर-उधर
हर मंदिर में शीश नवाए
पहने टोपी सर पर अपने
मस्ज़िद में दोनो हाथ उठाए
हर मंदिर में शीश नवाए
पहने टोपी सर पर अपने
मस्ज़िद में दोनो हाथ उठाए
पर क्या पाया अब तक
और क्या सोचा पाने का
बहती बयार में सब धोया
पर मैल ना धोया मन का
सोचे वो खुश होगा जो रहता है इन जगहों पर
पर क्या सोचा है कभी किकिसे खुश करने चले है हम
और क्यूँ?
बड़े ज्ञानी हैं, सिद्ध पुरुष हैं
सब कुछ के है ग्याता
उसकी करते पैरवी जो
खुद सबका भाग्यविधाता
सुन कर ही अचंभित हूँ,
देखूँ कैसे? प्राणी तेरी मूरखता
उसे सौपने चला क्या है?
जब तेरा कुछ नही लगता
भर दंभ करें सब मनमानी
अपनी-अपनी बात है मनवानी
पर किसे मनाने चले हैं?
कौन सी बाते?
किस परमात्मा की?
वो जो शायद है ही नही
और है तो हम देखे नही,
देखे हैं तो समझे नही और
समझे हैं तो जाने नही
फिर अज्ञानता फैलाने का विचार क्यूँ?
Great thoughts
ReplyDeleteThanks sr... Please follow my blog to read newest one....
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