सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
थोड़ा बदलेगा उसके व्यवहार को
बदलना तो दूर की बात
बढ़ा लिया है अपने पाप को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
कहीं पे चोरी,कहीं पे दंगे
मार रहे हैं सब भूखे और नंगे
सोचा था बढ़ाएगा भाईचारे को
प्रेम को, सदभाव को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
एक हाथ से पैसा लेते, एक हाथ से काम कराते
फिर उसी पैसे के लिए एकदूसरे को मारते काटते
किसी दिन चबा जाएँगे समाज को
इस देश को, इस संसार को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
धर्म को मज़ाक बना दिया है
कैसा था अब कैसा बना दिया है?
बाँट दिया है दुनिया, समाज को
इंसान को, भगवान को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
अमीर, ग़रीब का भेदब नाकर
दबा दिया है इंसान को
बेच दिया है ईमान को
सम्मान को, पहचान को
सोचा था बदलाव बदल देगा इंसान को
बहुत सुंदर और मौजूदा समाज को इंगित करती रचना है गौरव, प्रयास जारी रखे, बहुत उम्दा रचना
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