अश्कों को छिपा कभी अपने
कभी अश्कों को पिघलने दे
मन को समझाले कभी-कभी
कभी हसरत तू उमड़ने दे।
दे आभाओं को तू प्रकाश
कभी गहरा करदे रातों को
पानी को पीकर प्यास बुझा
भीतर ज्वाला भी जलने दे।
अम्बर से ऊँचा उड़ने की
कर अभिलाषा तू रोज यहाँ
पतितों की पावन धरती है
क़दमों को इस पर चलने दे।
हे मनु पुत्र! तू गर्व न कर
चाहे अपने इस जीवन पर
पर कर्मों का ऐसा भोगी बन
सर पुरखों का न झुकने दे।
वाह जी वाह । अंतिम पंक्ति श्रेष्ट
ReplyDeleteधन्यवाद राहुल भाई।
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