Saturday 31 October 2015

यादों के झरोंखो में

यादों के झरोंखो में


यादों के झरोंखो में एक लौ जला ना पाया
बिखरे पड़े जिंदगी के पन्नों में भी एक खुशी ढूँढ ना पाया

बीते दिन स्कूल में भी एक शरारत कर ना पाया
और मोहल्ले के किसी घर का एक काँच भी तोड़ ना पाया
अट्ठारह वर्ष की उमर में एक फूल ना सूंघ पाया
और ना दोस्तो के संग ही कहीं घूम पाया
यादों के झरोंखो में एक लौ जला ना पाया
बिखरे पड़े जिंदगी के पन्नों में भी एक खुशी ढूँढ ना पाया
वयस्क होने पर वयस्कता का अधिकार भी घर से ना मिल पाया
और जीवन साथी खुद चुनने का मौका भी ना मिल पाया
फूलों की खुश्बू और पेड़ पौधों की ठंडी हवाओं का एहसास भी ना कर पाया
और जिंदगी के पैंसठ बसंतों को भी ना जी पाया
ज़िम्मेदारियों के तले सब जान पाया
पर इस नाज़ुक मन में क्या है ये कभी ना जान पाया
आज मन के तीर में एक प्रश्न तैरा आया
सारी जिंदगी गुजर गयी पर तूने क्या पाया?
यादों के झरोंखो में एक लौ जला ना पाया
बिखरे पड़े जिंदगी के पन्नों में भी एक खुशी ढूँढ ना पाया

by
Ravinder Singh Raturi

From Rishikesh, Uttarakhand


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